Wednesday, January 9, 2013

झमेले





अपनी जिंदगी गुजारी है ख्बाबों के ही सायें में
ख्बाबों  में तो अरमानों के जाने कितने मेले हैं  

भुला पायेंगें कैसे हम ,जिनके प्यार के खातिर
सूरज चाँद की माफिक हम दुनिया में अकेले हैं  

महकता है जहाँ सारा मुहब्बत की बदौलत ही
मुहब्बत को निभाने में फिर क्यों सारे झमेले हैं  

ये उसकी बदनसीबी गर ,नहीं तो और फिर क्या है
जिसने पाया है बहुत थोड़ा ज्यादा गम ही झेले हैं 

प्रस्तुति:

मदन मोहन सक्सेना

7 comments:

  1. ये उसकी बदनसीबी गर ,नहीं तो और फिर क्या है
    जिसने पाया है बहुत थोड़ा ज्यादा गम ही झेले हैं

    ...बहुत खूब!

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  2. गहन भाव किये उजागर ,गम बांटने के लिए |
    "ये उसकी बदनसीबी नहीं तो और क्या है
    ------ज्यादा गम ही झेले हैं "
    उम्दा पंक्ति
    आशा

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  3. ये उसकी बदनसीबी गर ,नहीं तो और फिर क्या है
    जिसने पाया है बहुत थोड़ा ज्यादा गम ही झेले हैं
    उम्‍दा अहसास हैं.
    New post : दो शहीद



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  4. वाह .. क्या बात है जी ..

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  5. महकता है जहाँ सारा मुहब्बत की बदौलत ही
    मुहब्बत को निभाने में फिर क्यों सारे झमेले हैं

    वाह , बहुत खूब ...
    सादर !

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