Monday, September 3, 2012
Wednesday, August 8, 2012
Thursday, July 19, 2012
ग़ज़ल
आगमन
नए दौर का
आप जिसको कह
रहे
बो
सेक्स की रंगीनियों
की पैर में
जंजीर है
सुन
चुके है बहुत
किस्से वीरता पुरुषार्थ
के
हर
रोज फिर किसी
द्रौपदी का खिंच
रहा क्यों चीर
है
खून
से खेली है
होली आज के
इस दौर में
कह
रहे सब आज ये
नहीं मिल रहा
अब नीर है
मौत
के साये में
जीती चार पल
की जिन्दगी
ये
ब्यथा अपनी नहीं
हर एक की
ये पीर है
आज
के हालत में
किस किस से
हम बचकर चले
प्रशं लगता
है सरल पर
ये बहुत गंभीर
है
चाँद
रुपयों की बदौलत
बेचकर हर चीज
को
आज
हम आबाज देते
की बेचना जमीर
है
ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना
Monday, July 9, 2012
Friday, June 1, 2012
गीत
आकर के यूँ चुपके से, मेरे दिल में जगह पाना
दुनियां में तो अक्सर ही ,सभल कर लोग गिर जाते
मगर उनकी ये आदत है की गिरकर भी सभल जाना
आकर पास मेरे फिर धीरे से यूँ मुस्काना
पाकर पास मुझको फिर धीरे धीरे शरमाना
देखा तो मिली नजरें फिर नजरो का झुका जाना
ये उनकी ही अदाए है मुश्किल है कहीं पाना
जो बाते रहती दिल में है ,जुबां पर भी नहीं लाना
बो लम्बी झुल्फ रेशम सी और नागिन सा लहर खाना
बो नीली झील सी आँखों में दुनियां का नजर आना
बताओ तुम दे दू क्या ,अपनी नजरो को मैं नज़राना
काब्य प्रस्तुति :
मदन मोहन सक्सेनाWednesday, May 23, 2012
Wednesday, August 10, 2011
प्रार्थना
जो दूसरों को बख्शी को बो जिंदगी न दे
तन दिया है मन दिया है और जीवन दे दिया
प्रभु आपको इस तुच्छ का है लाखों लाखों शुक्रिया
चाहें दौलत हो ना हो कि पास अपने प्यार हो
प्रेम के रिश्ते हों सबसे ,प्यार का संसार हो
मेरी अर्ध्य है प्रभु आपसे प्रभु शक्ति ऐसी दीजिये
मुझे त्याग करूणा प्रेम और मात्रं भक्ति दीजिये
तेरा नाम सुमिरन मुख करे कानों से सुनता रहूँ
करने को समर्पित पुष्प मैं हाथों से चुनता रहूँ
जब तलक सांसें हैं मेरी ,तेरा दर्श मैं पाता रहूँ
ऐसी कृपा कुछ कीजिये तेरे द्वार मैं आता रहूँ
काब्य प्रस्तुति :
मदन मोहन सक्सेनाMonday, August 8, 2011
भ्रष्टाचार
भूतकाल के शुष्क धरातल पर
जब हमारें पुर्बजों ने
भबिष्य की आबश्यक्तायों की पूर्ति के लिए
अपने देश में आयत करके
भ्रष्टाचार का एक बीज रोपा था
इस बिश्बास के साथ कि
आगे आने बाले समय में
नयी पीढ़ियों का जीवन सुखद सरल एबम सफल होगा
किन्तु इस आशंका से
बे भयाक्रांत ब्याकुल एबम चिंतित थे
कि कहीं
धर्मनिरपेछ्ता ,सदाचार ,साम्प्रदयिक सदभाब
कर्तब्यनिष्टा ,देशप्रेम,नामक घातक प्रहारों से
निति निर्माताओं, रहनुमाओं एबम राजनेताओं के द्वारा
उसकी असामयिक हत्या ना कर दी जाये
किन्तु उनकी ये आशंका
निर्मूल ,निरर्थक ,बेअसर साबित हुयी
जब बीसबीं सदी के उतरार्ध में
उनके बच्चों ने जिसमें
चिकित्सक ,अध्यापक ,एबम राजनेता
लेखक पत्रकार और अभिनेता
बैज्ञानिक ,धर्मगुरु ,क्रेता बिक्रेता
सभी ने एक साथ मिलकर
अपने अथक प्रयासों से
ब्रक्ष के फलने फूलने में बराबर का योगदान दिया
आज कल हम सब ने
घर्र्र्ना स्वार्थ नफ़रत हिंसा एबम दहशत का बाताबरण
तैयार कर के
हत्या ,राहजनी एबम लूटपाट
अपहरण ,आतंकबाद और मारकाट नामक
उत्प्रेरकों कि उपस्थिति से
आर डी एक्स ,ऐ के सैतालिस नामक
उन्नत तकनीकी सयंत्रों के सयोंग से
धर्म ,शिक्षा, राजनीतिएबम खेलों में
भ्रष्टाचार के पौधे को चरम सीमा तक
पुष्पित पल्लिबत होने दिया है
हमें बिश्बास है कि
ईकीसबी सदी में भी
हमारे बच्चे पूरी कोशिश करेंगें
ताकि ये ब्रक्ष फलता फूलता रहे
और अगर इसी तरह से ये कोशिश जारी रही
तो बह दिन दूर नहीं
जब गली -गली , शहर- शहर ,घर -घर में
इसका युद्ध स्तर पर ब्यब सायिक उत्पादन शुरू होगा
और उस दिन हम ,तब
भ्रष्टाचार के फल फूल बीज को
पुरे संसार में निर्यात कर सकेंगें
उस पल पूरा संसार
भ्रष्टाचार को पाने के लिए
आश्रित रहेगा
हम पर और सिर्फ हम पर
प्रस्तुति :
मदन मोहन सक्सेनाThursday, July 28, 2011
मेरा मन सोचता है कि भूकंप क्यों आते हैं
अचानक प्राकतिक दुर्घटना घटी
उसी पल जमीन फटी
सजे सम्भरें सुसज्जित गृह खँडहर में बदल गये
शमशान गृह में ही सारे शहर ही बदल गये
मेरा मन सोचता है कि
ये चुपचाप सा लेता हुआ युबा कौन है
क्या सोचता है और क्यों मौन है
ये शायद अपनें बिचारों में खोया है
नहीं नहीं लगता है ,ये सोया है
इसे लगता नौकरी कि तलाश है
अपनी योग्यता का इसे बखूबी एहसास है
सोचता था कि कल सुबह जायेंगें
योग्यता के बल पर उपयुक्त पद पा जायेंगें
पर अचानक जब आया भूकंप
मन कि आशाएं बेमौसम ही जल गयीं
धरती ना जानें क्यों इस तरह फट गयी
मेरा मन सोचता है कि
ये बृद्ध पुरुष किन विचारों में खोया है
आँखें खुली हैं किन्तु लगता है सोया है
इसने सोचा था कि
कल जब अपनी बेटी का ब्याह होगा
बर्षों से संजोया सपना तब पूरा होगा
उसे अपने ही घर से
अपने पति के साथ जाना होगा
अपने बलबूते पर घर को स्वर्ग जैसा बनाना होगा
पर अचानक जब आया भूकंप
मन कि आशाएं बेमौसम ही जल गयीं
धरती ना जानें क्यों इस तरह फट गयी
मेरा मन सोचता है कि
ये बालक तो अब बिलकुल मौन है
इस बच्चे का संरछक न जाने कौन है
लगता है कि
मा ने बेटे को प्यार से बताया है
बेटे को ये एतबार भी दिलाया है
कल जब सुबह होगी
सूरज दिखेगा और अँधेरा मिटेंगा
तब हम बाहर जायेंगें
और तुम्हारे लिए
खूब सारा दूध ले आयेंगें
शायद इसी एहसास में
दूध मिलने कि आस में
चुपचाप सा मुहँ खोले सोया है
शांत है और अब तलक न रोया है
पर अचानक जब आया भूकंप
मन कि आशाएं बेमौसम ही जल गयीं
धरती ना जानें क्यों इस तरह फट गयी
मेरा मन सोचता है कि
ये नबयौब्ना चुपचाप क्यों सोती है
न मुस्कराती है और न रोती है
सोचा था कि ,कल जब पिया आयेंगें
बहुत दिनों के बाद मिल पायेंगें
जी भर के उनसे बातें करेंगें
प्यार का एहसास साथ साथ करेंगें
पर अचानक जब आया भूकंप
मन कि आशाएं बेमौसम ही जल गयीं
धरती ना जानें क्यों इस तरह फट गयी
मेरा मन सोचता है कि
आखिर क्यों ?
युबक ,बृद्ध पुरुष ,बालक,नबयौबना पर
अचानक ये कौन सा कहर बरपा है
किन्तु इन सब बातों का
किसी पर भी, कुछ नहीं हो रहा असर
बही रेडियो ,टीवी का संगीतमय शोर
घृणा ,लालच स्वार्थ की आजमाइश और जोर
मलबा ,टूटे हुयें घर ,स्त्री पुरुषों की धेर सारी लाशें
बिखरतें हुयें सपनें और सिसकती हुईं आसें
इन सबको देखने और सुनने के बाद
भोगियों को दिए गये बही खोखले बादे
अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिये
कार्य करने के इरादे
बही नेताओं के जमघतो का मंजर
आश्बास्नों में छिपा हुआ घातक सा खंजर
मेरा मन सोचता है कि
आखिर ऐसा क्यों हैं कि
क्या इसका कोई निदान नहीं है
आपसी बैमन्सय नफरत स्वार्थपरता को देखकर
एक बार फिर अपनी धरती माँ कापें
इससे पहले ही हम सब
आइए
हम सब आपस में साथ हो
भाईचारे प्यार कि आपस में बात हो
ताकि
युबक ,बृद्ध पुरुष ,बालक,नबयौबना
सभी के सपनें और पुरे अरमान हों
सारी धरती पर फिर से रोशन जहान हो .......
प्रस्तुति :
मदन मोहन सक्सेना
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