Thursday, October 10, 2013

सोच पर तरस















सोच पर तरस

तरस आता है
मुझे उन लोगों की सोच पर
जो लोग आंतकबादी की पहचान भी धर्म से करने लगते हैं
और
संतों के दुराचरण में भी
हिन्दू धर्म और सनातन धर्म को बीच में ले आते हैं
धर्म लोगों को
आपस में मिलजुल कर रहने की सीख देता है
आतंक ,यौनाचार
करने बाला सिर्फ
मानबता का अपराधी है
उसका कोई धर्म नहीं होता है


प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना

Tuesday, October 1, 2013

समय समय का फेर

















 










समय समय की बात है समय समय का फेर
पशुओं को भी लग रहा देर सही ना अंधेर

बात बात पर लालूजी हँसते और मुसकाय
सजा सुनी ज्यों ही तभी दिल बैठा सा जाय

पहले लालू जी चले और पीछे चले मसूद
सख्ती से अब कोर्ट की कम होने लगा बजूद

चारा का तो हो गया कोयला का क्या होय
बोया (खाया )जैसा आपने फल भी बैसा होय

जनता की ये जीत है या भ्रष्टाचार की हार
जुगत मिलाने के लिए फिर नेता अब तैयार

 


मदन मोहन सक्सेना .



 




Thursday, September 26, 2013

क्रिया कलाप


















 






चाल ,चरित्र और चेहरा की बात करने बाले
आम आदमी के साथ होने का दाबा करने बाले
धर्म निरपेक्ष्ता का राग अलापने बाले
दलित चेतना की बात करने बाले
समाज बाद की दुहाई देने बाले
किसान ,गरीब ,शोषित की याद रखने बाले
सब ने मिलकर
कुछ ही पल में
मुख्य सुचना आयुक्त्य द्वारा
आम जनता को दिए गए जानकारी के अधिकार को
जबरदस्ती छीन लिया
अब जनता नहीं जान  सकेगी
कितनी परेशानी से
जनता के हितैषी
कैसे कैसे क्रिया कलाप
जनता के हित के लिए किया करते हैं .


मदन मोहन सक्सेना

Thursday, September 12, 2013

आँख मिचौली

























आँख मिचौली



जब से मैंने गाँव क्या छोड़ा 
शहर में ठिकाना खोजा 
पता नहीं आजकल 
हर कोई मुझसे 
आँख मिचौली का खेल क्यों खेला  करता है 
जिसकी जब जरुरत होती है 
बह बहाँ से गायब मिलता है 
और जब जिसे जहाँ नहीं होना चाहियें 
जबरदस्ती कब्ज़ा जमा लेता है
कल की ही बात है 
मेरी बहुत दिनों के बात उससे मुलाकात हुयी 
सोचा गिले शिक्बे दूर कर लूँ 
पहले गाँव में तो उससे रोज का मिलना जुलना होता था
जबसे मुंबई में इधर क्या आया 
या कहिये
मुंबई जैसेबड़े शहरों की दीबारों के बीच आकर फँस  गया 
पूछा 
क्या बात है
आजकल आती नहीं हो इधर।
पहले तो हमारे  आंगन भर-भर आती थी
दादी की तरह छत पर पसरी रहती थी हमेशा
तंग दिल पड़ोसियों ने
अपनी इमारतों की दीवार क्या ऊँची की
तुम तो इधर का रास्ता ही भूल गयी
तुम्हें अक्सर सुबह देखता हूं
कि पड़ी रहती हो 
तंगदिल और धनी लोगों
के छज्जों पर
हमारी छत तो
अब तुम्हें भाती ही नहीं है 
क्या करें 
बहुत मुश्किल होती है 
जब कोई अपना (बर्षों से परिचित) 
आपको आपके हालत पर छोड़कर 
चला जाता है 
लेकिन याद रखो
ऊँची इमारतों के ऊँचे लोग 
बड़ी सादगी से लूटते हैं
फिर चाहे वो दौलत  हो या  इज्जत हो
महीनों के  बाद मिली हो 
इसलिए सारी शिकायतें सुना डाली
उसने कुछ बोला नहीं
बस हवा में खुशबु घोल कर 
खिड़की के पीछे चली गई
सोचा कि उसे पकड़कर आगोश में भर लूँ
धत्त तेरी की 
फिर गायब 
ये महानगर की धूप भी न 
बिलकुल तुम पर गई है 
हमेशा आँख मिचौली का खेल खेला  करती है 
बिना ये जाने 
कि इस समय इस का मौका है भी या नहीं 





 मदन मोहन सक्सेना 

Wednesday, September 4, 2013

शिक्षा शिक्षक और हम


 


















आज शिक्षक दिवस है
यानि
भारत के पूर्व राष्ट्रपति और दार्शनिक तथा शिक्षाविद डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिन
प्रश्न है कि आज शिक्षक दिबस की कितनी जरुरत है
शिक्षक लोग आज के दिन
बच्चों से मिले तोहफे से खुश हो जाते हैं
और बच्चे शिक्षक को खुश देख कर खुश हो जातें हैं
शिक्षा का मतलब सिर्फ जानकारी देना ही नहीं है
जानकारी और तकनीकी गुर का अपना महत्व है
लेकिन बौद्धिक झुकाव और लोकतांत्रिक भावना का भी महत्व है
इन भावनाओं के साथ छात्र उत्तरदायी नागरिक बनते हैं
जब तक शिक्षक ,शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होगा
तब तक शिक्षा को अपना उद्देश्य नहीं मिल पायेगा
हमारी संस्कृति में
शिक्षक और गुरु का दर्जा तो भगवान से भी ऊपर माना गया है
लेकिन
आज का गुरु गुरु कहलाने लायक है इस पर प्रश्नचिह्न हैं
कितने ही गुरु ऐसे हैं जिन पर घिनौने अपराधों के आरोप लगे हुए हैं
शिक्षक भी गुरु के पद से तो उतर ही चुका है
अब वह शिक्षक भी रह पाएगा इसमें संदेह है
परिणाम ये हुआ है कि
आज न तो छात्रों के लिए कोई शिक्षक
उनका आर्दश , उनका मार्गदर्शक गुरू और जीवनभर की प्रेरणा बन पाता है
और न ही शिक्षक बनने को उत्सुक भी हैं
बही घिसी पिटी शिक्षा प्रणाली को उम्र भर खुद ढोता है
और छात्रों की पीठ पर लादता हुआ
एक शिक्षक
अब इस आस में कभी नहीं रहता कि उसका कोई छात्र
देश और समाज के निर्माण में कोई बडी सकारात्मक  भूमिका निभाएगा
सवाल ये कि इन सब के लिए कौन जिम्मेदार है
शिक्षक , शिक्षा ब्यबस्था या समाज
शिक्षक को जिस सम्मान से देखा जाना चाहियें
जो सुबिधाएं शिक्षक को  मिलनी चाहियें ,क्या मिल रहीं हैं
अगर नहीं
तो आज के भौतिक बादी युग में कौन शिक्षक बनना चाहेंगा
यदि शिक्षक संतुष्ट नहीं रहेगा
तो हमारे बच्चों का भबिष्य क्या होगा
देश सेबा में उनका कितना योगदान होगा
और हम किस दिशा में जा रहें हैं
समझना ज्यादा मुश्किल नहीं हैं।

शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामना :




प्रस्तुति :
मदन मोहन सक्सेना



Friday, August 30, 2013

हे राम आशाराम




















हे राम 
आशाराम 
राम राम 
जमीनों  का अतिक्रमण
लड़कियों का यौन शोषण 
भ्रष्‍ट तरीको से पैसा  कमाना
आस्था के नाम पर भावनाओं  से खिलवाड़
क्या ऐसे  होते हैं बाबा
सभी अपने नैनों को खोले 
चंगुल से आज़ाद हो जाओ
कि कहीं अगला नंबर आपका ना हो
क्या हमें जरूरत है ऐसे  डोंगी  की 
जाना है तो नारायण की शरण में जाओ
शिव की शरण में जाओ 
और अपना जीवन सफल बनाओ
हमारे पास ज्ञान के लिये गीता है 
वेद है 
फिर भी हम  बाबाओ के जाल में कैसे फंस जाते है
दुनिया को मोहमाया से मुक्त होने का संदेश देने वाला
खुद समधी का बहाना बना कर
पुलिस से बचना चाह रहा है 
क्या बहाना लगाया है पुलिस से बचने का !
ये बापू और वो बापू 
गुजरात की ही धरती पर के दो अलग अलग उदाहरण 
एक बेचारी नाबालिक लड़की के साथ
जिसका सारा परिवार इसको भगवान मानता हो
लड़की के पिता ने अपनी जमीन आश्रम  के लिये दे दी हो 
वो ही बाप आज कानून का दरवाज़ा खटखता रहा है
सी बी आई  जांच की मांग करता है 
और कह रहा है 
अगर पिता गलत है तो फाँसी  दे दो 
नही तो  बाबा को
अंधविश्वास को समाज मे फ़ैलाने बाला 
लोगों को बहकाने वाला  आज बाबा बना बेठा है 
और अंधविश्वास के खिलाफ मुहिम चलाने  वाले 
दाभोलकर जैसे  समाजसुधारो को मौत के घाट उतार दिया जाता है
और पुलिस उन हत्यारो को पकड भी नही पाती
क्योंकि हिन्दुस्तान की पब्लिक भी बेबकूफ है
तभी तो इन दुष्टो का धंधा खूब फूलता फलता है
हे राम 
आशाराम 
राम राम



 मदन मोहन सक्सेना

Tuesday, August 20, 2013

हे ईश्वर






























हे ईश्वर 
आखिर तू ऐसा क्यूँ करता है ?
अशिक्षित ,गरीब ,सरल लोग 
तो अपनी ब्यथा सुनाने के लिए 
तुझसे मिलने के लिए ही आ रहे थे 
बे सुनाते भी तो भला किस को 
आखिर कौन उनकी सुनता ?
और सुनता भी 
तो कौन उनके कष्टों को दूर करता ?
उन्हें बिश्बास  था कि तू तो रहम करेगा 
किन्तु 
सुनने की बात तो दूर 
बह लोग बोलने के लायक ही नहीं रहे 
जिसमें औरतें ,बच्चें और कांवड़िए भी शामिल थे 
जो कात्यायनी मंदिर में जल चढ़ाने जा रहे थे
क्योंकि उनका बिश्बास था कि 
सावन का आखिरी सोमवार होने से  शिब अधिक प्रसन्न होंगें। 
कभी केदार नाथ में तूने सीधे सच्चें  लोगों का इम्तहान लिया 
क्योंकि उनका बिश्बास था कि चार धाम की यात्रा करने से 
उनके सभी कष्टों का निबारण हो जायेगा।
और कभी कुम्भ मेले में सब्र की परीक्षा ली 
क्योंकि उनका बिश्बास था कि गंगा में डुबकी लगाने से 
उनके पापों की गठरी का बोझ कम होगा 
उनको  क्या पता था कि
भक्त और भगबान के बीच का रास्ता 
इतना काँटों भरा होगा 
हे इश्वर 
आखिर तू ऐसा क्यों करता है। 
उन्हें  क्या पता था कि 
जीबन के कष्ट  से मुक्ति पाने के लिए 
ईश्वर  के दर पर जाने की बजाय 
आज के समय में 
चापलूसी , भ्रष्टाचार ,धूर्तता का होना ज्यादा फायदेमंद है 
सत्य और इमानदारी की राह पर चलने बाले की 
या तो नरेन्द्र दाभोलकर की तरह हत्या कर दी जाती है 
या फिर दुर्गा नागपाल की तरह 
बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। 

हे ईश्वर 
आखिर तू ऐसा क्यों करता है।



प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना 

Wednesday, August 7, 2013

फिर एक बार आखिर कब तक

फिर एक बार 
सीमा का अतिक्रमण 
फिर एक बार पड़ोसी  देश की कायराना हरकत 
फिर एक बार हमारे सैनिकों की  शहादत 
फिर से पक्ष बिपक्ष का हंगामा 
फिर से आँकड़ों की बाजीगरी का खेल 
फिर से एक बार 
घटना की निंदा करने बाले बयानों की बहार 
फिर से 
भारत माता के सच्चे पुत्र की मौत 
यानि 
माता  पिता का पुत्र खोना 
बेटी का पिता खोना 
बहन का भाई खोना 
पत्नी का सब कुछ खोना 
फिर एक बार जिंदगी की कीमत मुआबजे से लगाना 
फिर एक बार 
आखिर कब तक

प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना 


Friday, August 2, 2013

सफ़र जिंदगी का



















बीती उम्र कुछ इस तरह कि खुद से हम न मिल सके
जिंदगी का ये सफ़र क्यों इस कदर अंजान है



कल तलक लगता था हमको शहर ये जाना हुआ
इक शख्श अब दीखता नहीं तो शहर ये बीरान है


इक दर्द का एहसास हमको हर समय मिलता रहा
ये बक्त की साजिश है या फिर बक्त का एहसान है

 
गर कहोगें दिन को दिन तो लोग जानेगें गुनाह
अब आज के इस दौर में दिखते नहीं इन्सान है

 
गैर बनकर पेश आते, बक्त पर अपने ही लोग
अपनो की पहचान करना अब नहीं आसान है

 
प्यासा पथिक और पास में बहता समुन्द्र देखकर
जिंदगी क्या है मदन , कुछ कुछ हुयी पहचान है



 

मदन मोहन सक्सेना

Monday, July 29, 2013

अंतर्मन की बेदना

अंतर्मन की बेदना 

परिबर्तन संसार का नियम है 
ज्यों समय बदलता है ,मौसम बदलता है 
बचपन जबानी में और जबानी बृद्धा अबस्था में 
तब्दील हो जाती है 
समय के चक्र के साथ 
अपने बेगाने में रूपान्तरित हो जाते हैं 
अजबनी अपनेपन का अहसास करातें हैं 
कभी दुनिया  पराई ब जालिम लगती है
तो कभी रंगीनियों का साक्षात्  प्रतिबिम्ब नजर आती है 
समय के इस चक्र में फँसा हुआ 
मैं अपने को पहचानने के लिए 
खुद से संपर्क स्थापित करना चाहता हूँ 
इसलिये दिन में दो बार 
और कभी कभी उससे अधिक बार 
आइनें में खुद को निहारता रहता हूँ 
जब मैनें खुद को सतही तौर  पर
जाननें की कोशिश की 
मैं खुद के अंत: सागर में तैरने लगता हूँ 
जब खुद को गहराई से जानने की 
तो असीम बिस्तार बाले अन्तासागर के गर्त में 
खुद को डूबा हुआ सा पाता हूँ 
अक्सर मेरे साथ ये होता है 
जो कहना चाहता हूँ ,बह कह नहीं पाता हूँ 
और जो कहता हूँ ,बह कहा मेरा नहीं लगता है 
मैं जो हूँ ,क्या बह नहीं हूँ 
और जो मैं नहीं हूँ ,क्या  मैं बह  हूँ
ये विचार मेरे अंतर्मन में गूंजता रहता है 
अपने अंतर्मन की बेदना को अभिब्यक्त 
करने के लिए मैंने लेखनी का कागज से स्पर्श  किया


प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना